Friday

13-06-2025 Vol 19

अमीर ख़ुसरो का 721वां उर्स-ए-मुबारक़, दरगाह पर अक़ीदतमंदों का हुजूम

By Muskan Khan

हिंदुस्तानी तहज़ीब और सूफ़ियाना रंगत के बेमिसाल शायर, हज़रत अमीर खुसरो (रह.) का ज़िक्र होते ही दिल में एक रूहानी मिठास घुल जाती है। अमीर ख़ुसरो, जो कि हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया (रह.) के अज़ीज़ शागिर्द थे, ने न सिर्फ़ शायरी और संगीत की दुनिया में नए आयाम स्थापित किए, बल्कि हिंदवी और फ़ारसी ज़बानों को भी एक नई जान बख़्शी। उनकी कलाम आज भी सूफ़ी महफ़िलों में रूह को सुकून देने वाला नूर बनकर बिखरती है।

इस साल अमीर ख़ुसरो का 721वां उर्स-ए-मुबारक़ बड़ी अक़ीदत और शान से मनाया जा रहा है। दिल्ली में वाक़े हज़रत निज़ामुद्दीन दरगाह शरीफ़, जो आज भी रौशन ए-चराग़ है, इस मुबारक मौके़ पर इश्क़-ओ-मोहब्बत का मंज़र पेश कर रही है। फ़िज़ा में इत्र की ख़ुशबू और चराग़ों की रौशनी से एक रूहानी आलम तारी है।

अमीर ख़ुसरो का सफ़र

अमीर ख़ुसरो का असल नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन था। उन्हें ‘तूतिये हिंद’ (भारत का तोता) भी कहा जाता है। उनका जन्म 1253 ई. में उत्तर प्रदेश के पटियाली (ज़िला कासगंज) में हुआ था। वह बचपन से ही शायरी और मौसीक़ी के दीवाने थे। उनकी जुबान पर फ़ारसी, तुर्की और हिंदवी का ऐसा मेल था कि सुनने वाला हर दिल उन पर फ़िदा हो जाता।

खुसरो ने खड़ी बोली को पहली बार अदबी शक्ल दी और ग़ज़ल, क़व्वाली, रुबाई व गीतों के ज़रिए हिंदुस्तान के दिल में सूफी रंग घोल दिया। कहा जाता है कि मौसीकी में ‘सतरंगी’ राग की ईजाद भी उन्हीं के हिस्से आई।

उर्स-ए-मुबारक़ की रौनक़

हर साल उर्स-ए-ख़ुसरो पर हिंदुस्तान भर से अकीदतमंद, क़व्वाल और सुलूक के आशिक दरगाह निज़ामुद्दीन शरीफ़ पहुंचते हैं। कव्वाली की महफ़िलें सजती हैं, जहां अमीर ख़ुसरो की रचनाएं गायी जाती हैं — “छाप तिलक सब छीनी रे”, “आज रंग है” और “मोहे आपनी बना लो शरणी” जैसे नग़मे फिज़ा में घुलकर इश्क़-ए-हक़ीक़ी का पैग़ाम देते हैं।

इस बरस भी दरगाह पर चादरें पेश की जा रही हैं, दुआओं के हाथ उठ रहे हैं, और हर तरफ़ अमन व मुहब्बत की दुआएं मांगी जा रही हैं। सारा माहौल एक जश्न-ए-इश्क़ का मंज़र पेश कर रहा है।

अमीर ख़ुसरो की विरासत

अमीर ख़ुसरो का असर आज भी हमारी तहज़ीब, अदब और संगीत में जिंदा है। उनकी क़लम ने जो मोहब्बत और भाईचारे का पैग़ाम दिया था, वह सदियों से हिंदुस्तान की गंगा-जमुनी तहज़ीब की बुनियाद बना हुआ है। उनकी रचनाओं में आज भी वही ताज़गी, वही रूहानी कशिश बरकरार है।
उनका कहना था:

“अगर फिरदौस बर रूए ज़मीं अस्त,
हमीं अस्त, हमीं अस्त, हमीं अस्त!”

(अगर धरती पर कहीं जन्नत है, तो यहीं है, यहीं है, यहीं है।)

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