Saturday

07-06-2025 Vol 19

वसीम बरेलवी की शायरी: बुज़ुर्गों की धरोहर और नौजवानों की मशाल

By Muskan Khan

जब कभी मोहब्बत, तन्हाई, समाज और इंसानियत की बात होती है, तो एक नाम अक्सर दिल में दस्तक देता है वसीम बरेलवी। वो शायर जो न सिर्फ़ अल्फ़ाज़ को जज़्बातों का लिबास पहनाते हैं, बल्कि दिलों की गहराइयों तक उतर जाते हैं। उनकी शायरी महज़ इश्क़ की गुफ़तगू नहीं, बल्कि इंसानी जज़्बात और तहज़ीब की दास्तान है।

शुरुआती ज़िंदगी और अदबी माहौल

18 फ़रवरी 1940 को उत्तर प्रदेश के शहर बरेली में पैदा हुए ज़ाहिद हसन, आगे चलकर शायरी की दुनिया में वसीम बरेलवी के नाम से मशहूर हुए। उनका बचपन एक ऐसे घराने में गुज़रा जहां अदब की ख़ुशबू बसी हुई थी। उनके वालिद शाहिद हसन उर्दू अदब से जुड़े हुए थे और घर पर अक्सर रईस अमरोहवी, जिगर मुरादाबादी, और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे नामचीन शायरों का आना-जाना रहता था। यही संगत उनके अदबी रुख़ की बुनियाद बनी।

उन्होंने अपनी पढ़ाई बरेली कॉलेज से पूरी की, जहां उन्होंने उर्दू साहित्य में एमए किया और गोल्ड मेडल हासिल किया। बाद में वहीं उर्दू विभाग के अध्यक्ष भी बने। पर उनकी असल पहचान, उनका जुनून, उनका फ़न  शायरी था, जिसने उन्हें हिंदुस्तान के कोने-कोने में मक़बूल बना दिया।

शायरी का अंदाज़ और पहचान

1960 के दशक में जब वसीम साहब ने मुशायरों में पढ़ना शुरू किया, तो उनकी आवाज़, अंदाज़ और अल्फ़ाज़ ने हर दिल को छू लिया। वो शायर जिसने ग़ज़ल को नया रूप दिया। बिना कठिन उर्दू के, सादा ज़ुबान में, मगर गहराई से लबरेज़। उनका मानना था कि शायरी सिर्फ़ महबूब की आँखों तक सीमित नहीं, बल्कि समाज की धड़कनों की नुमाइंदगी भी है।

उनकी शायरी हर पीढ़ी के लिए है। बुज़ुर्गों के लिए एक याद, नौजवानों के लिए एक राह, और हर उस दिल के लिए एक आईना जो तन्हा है।

नज़्में: जहां ज़िंदगी की बातें होती हैं

उनकी नज़्में ग़ज़लों से भी आगे की बात करती हैं। ये नज़्में समाज को देखती हैं, इंसान की हालत पर सोचती हैं और उम्मीद देती हैं

“आदमी आदमी को क्या देगा,

जो भी देगा, खुदा ही देगा।

आदमी खुद पे जब भरोसा कर,

सारी दुनिया उसे खुदा देगी।”

संगीत और फ़िल्मों से रिश्ता

हालांकि वसीम बरेलवी ने कभी फ़िल्मी दुनिया को नहीं चुना, लेकिन फ़िल्मी दुनिया ने उन्हें ज़रूर चुना। जगजीत सिंह ने उनकी ग़ज़लों को गाया और वो ग़ज़लें सीधे दिल में उतर गईं। फ़िल्म “प्यार के दो नाम (2024)” में भी उनकी शायरी ने नई पीढ़ी के दिलों तक पहुँच बनाई। उनकी शायरी संगीत के सुरों में ढलकर जब गूंजती है, तो एहसास का समुंदर बन जाती है।

अदबी ख़ज़ाना किताबें

उनकी किताबें उर्दू अदब का अनमोल हिस्सा हैं। हर किताब एक दौर, एक ज़िंदगी, एक तजुर्बा बयान करती है:

तबस्सुम-ए-ग़म (1966)

आंसू मेरे दामन तेरा (1990)

मिज़ाज (1990)

आंख आंख बनी (2000)

मेरा क्या (2007)

मौसम अंदर बाहर के (2007)

चराग़ (2016)

इन किताबों में वसीम साहब की ग़ज़लें, नज़्में और उनके जीवन के अक्स मिलते हैं।

सम्मान और सामाजिक भूमिका

उनके अदबी योगदान को कई मंचों पर सराहा गया। उन्हें निम्नलिखित पुरस्कारों से नवाज़ा गया।

फ़िराक़ गोरखपुरी अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार

कालिदास स्वर्ण पदक (हरियाणा सरकार द्वारा)

बेगम अख़्तर कला धर्मी सम्मान

नसीम-ए-उर्दू पुरस्कार

साथ ही, वे राष्ट्रीय उर्दू भाषा संवर्धन परिषद (NCPUL) के उपाध्यक्ष रहे। साल 2016 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य बनकर उन्होंने उर्दू भाषा और साहित्य के लिए एक नई आवाज़ बनाई।

वसीम बरेलवी की शख़्सियत


वसीम साहब की शख़्सियत में सादगी है, तहज़ीब है और मोहब्बत की रवानगी है। वो कभी मंच पर हों या अकेले किसी किताब की स्याही में डूबे हों — उनका फन, उनका अंदाज़ और उनकी मुस्कान हमेशा दिल जीत लेती है।


वसीम बरेलवी सिर्फ़ एक शायर नहीं, वो एक एहसास हैं, एक आवाज़ हैं, एक कारवां हैं जो अदब की रोशनी फैलाते हैं। उनकी शायरी में इश्क़ भी है, इंसानियत भी और हकीकत की झलक भी। वो हर उस दिल का शायर हैं जो टूटा है, हर उस आंख का जो भीगी है, और हर उस इंसान का जो आज भी मोहब्बत में यक़ीन रखता है।

“तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूं मैं,
कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा।”

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