Saturday

07-06-2025 Vol 19

बशीर बद्र ने सिर्फ़ 85 रुपये महीने पर पुलिस में नौकरी की!

By Muskan Khan

बशीर बद्र का नाम लेते ही एक ऐसे शायर का अक्स ज़ेहन में उभरता है, जिसने उर्दू ग़ज़ल को सिर्फ़ दिल की गहराइयों से नहीं, बल्कि ज़िंदगी की हर धड़कन और आम इंसान के रूहानी तजुर्बों से जोड़ दिया। वो शायर जिन्होंने उर्दू ग़ज़ल को नए लफ़्ज़, नए मानी और नई अदायगी से रोशन किया, मगर परंपरा की ज़ंजीरों को तोड़े बिना।

शेरी अन्दाज़ और लहजा

बशीर बद्र की शायरी महज़ इज़हार नहीं, एक तर्ज़-ए-बयान है। उनकी ग़ज़लों में महबूब की सिफ़त हो या क़ुदरत की कोई झलक, हर अहसास एक कहानी की तरह पेश आता है। प्रतीक, रूपक और तजस्सुस की तहों में लिपटी उनकी ग़ज़लें वाक़िआ नहीं, अहसासात से लबरेज़ होती हैं। उन्होंने आम आदमी की छोटी-छोटी बातों को भी शायरी का हिस्सा बनाया, इस अन्दाज़ में कि हर दिल तक उनकी बात पहुँच जाए।

उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को फ़ारसी-ज़दा भाषा से निकाल कर आम ज़बान दी – आसान, मगर असरदार। यही वजह है कि उनके अशआर उर्दू जानने वालों के साथ-साथ ग़ैर-उर्दू बोलने वालों के दिलों में भी उतरते गए। ग़ालिब के बाद अगर किसी शायर ने सबसे ज़्यादा मक़बूलियत पाई, तो वो बशीर बद्र हैं।

“फिर से ख़ुदा बनाएगा कोई नया जहां दुनिया को यूं मिटाएगी इक्कीसवीं सदी”

तालीम और ज़िंदगी का सफ़र

असल नाम सय्यद मुहम्मद बशीर, जन्म 15 फरवरी 1935, कानपुर। वालिद पुलिस महकमे में थे, लिहाज़ा पढ़ाई कई शहरों में हुई। हालात ने मजबूर किया और पुलिस की नौकरी करनी पड़ी, सिर्फ़ 85 रुपये माहवार पर। कम उम्र में शादी और बच्चों की ज़िम्मेदारी भी आ गई, मगर शायरी का शौक़ कभी ठंडा नहीं पड़ा।

“मुख़ालिफ़त से मेरी शख़्सियत संवरती है मैं दुश्मनों का बड़ा एहतिराम करता हूं”

यादों की पहली शमा

सातवीं जमात में एक ग़ज़ल मशहूर रिसाले ‘निगार’ में छपी और अदबी हल्क़ों में पहचान बन गई। 20 की उम्र तक उनका कलाम भारत-पाक के रिसालों की ज़ीनत बन चुका था। बाद में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से अदीब माहिर, कामिल, बीए, एमए और पीएचडी की डिग्रियाँ हासिल कीं। उनके गाइड थे प्रो. आल-ए-अहमद सुरूर और मौज़ू था – “आज़ादी के बाद उर्दू ग़ज़ल का तन्क़ीदी मुताला”।

“यारों नए मौसम ने ये एहसान किए हैं अब याद मुझे दर्द पुराने नहीं आते”

मुशायरों का चमकता सितारा

1967 में उन्होंने पुलिस की नौकरी को अलविदा कहा और अदब को ही ज़िंदगी का मक़सद बना लिया। मुशायरों की दुनिया में उनका नाम शोहरत की बुलंदी पर पहुंचा। बशीर बद्र की मौजूदगी मुशायरे की कामयाबी की ज़मानत मानी जाती थी।

1984 में एक मुशायरे के दौरान पाकिस्तान में थे, जब पहली बीवी क़मर जहां का इंतेक़ाल हुआ। मोहल्ले वालों ने – ज़्यादातर ग़ैर-मुस्लिम – ने उनकी तद्फ़ीन की। 1987 के मेरठ फ़साद में उनका घर जल गया। इसके बाद उन्होंने डॉ. राहत सुल्तान से निकाह किया और भोपाल को ठिकाना बना लिया।

“हम भी दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे रास्ता हो जाएगा”

लफ़्ज़ों में ताज़गी और रवानी

बशीर बद्र की शायरी में एहसास की नर्मी, लफ़्ज़ों की ताजगी और ज़बान की रवानी का ऐसा संगम है जो हर दिल को छू जाता है। देहात की मिट्टी की ख़ुशबू और शहरों की तल्ख़ सच्चाइयों को उन्होंने शायरी में बख़ूबी पिरोया। उन्होंने इश्क़ को सिर्फ़ हुस्न की चाशनी में नहीं, बल्कि रुहानी गहराई में भी ढाला।

“हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं उम्रें बीत जाती हैं दिल को दिल बनाने में”

डॉ. गोपीचंद नारंग का कहना है: “बशीर बद्र ने शायरी में नई बस्तियां बसाई हैं। उनकी शायरी हमारी ज़बान, हमारी तहज़ीब और हमारी सरज़मीन से हमें जोड़ती है।”

ऐज़ाज़ और अदबी मीरास

बशीर बद्र को भारत सरकार की ओर से ‘पद्मश्री’ से नवाज़ा गया। साहित्य अकादमी और विभिन्न राज्यों की उर्दू अकादमियों ने भी उन्हें सम्मानित किया। उनके मजमुए – इकाई, इमेज, आमद, आस, आसमान और आहट – उर्दू अदब के अनमोल हिस्से हैं।

उन्होंने ग़ज़ल को अल्फ़ाज़ी हुस्न से उठाकर एहसास की नई तहज़ीब दी। उनकी शायरी सादगी और गहराई का ऐसा संगम है जिसने उर्दू अदब की तारीख़ में एक नूरानी बाब लिखा।

“अहबाब भी ग़ैरों की अदा सीख गए हैं आते हैं मगर दिल को दुखाने नहीं आते”

“अजब चराग़ हूं दिन रात जलता रहता हूं मैं थक गया हूं हवा से कहो बुझाए मुझे”

बशीर बद्र सिर्फ़ शायर नहीं, एहसासों के दस्तावेज़ हैं। उनके लफ़्ज़ हर दिल की आवाज़ बन चुके हैं।

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