Thursday

25-12-2025 Vol 19

दिल्ली की शामों का पहरेदार इंडिया गेट

By Muskan Khan

दिल्ली की शाम जैसे ही ढलने लगती है, राजपथ की हवा में कुछ जादुई सा घुल जाता है। आसमान सुनहरी से नीला होता है और उस वक्त दूर से उभरता है एक विशाल दरवाज़ा – इंडिया गेट। लाल बलुआ पत्थर से बना यह स्मारक, मानो शहर के दिल में खड़ा कोई सिपाही हो, जो समय का पहरा देता आया है।

बच्चे अपने खेल रोककर इसे निहारते हैं, परिवार रुककर तस्वीरें लेते हैं और दौड़ती-भागती ज़िंदगी भी यहाँ कुछ पल थम जाती है। लेकिन जो इसे सिर्फ़ एक “घूमने की जगह” समझते हैं, शायद उन्होंने इसकी दीवारों पर लिखे नाम कभी ध्यान से नहीं पढ़े।

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पत्थरों में दबी दास्तानें

ये मेहराब उस खून और मिट्टी की कहानी कहती है, जहाँ हज़ारों भारतीय सैनिकों ने अपनी जान दी। कोई पंजाब के खेतों से उठा था, कोई बंगाल की नदियों से, कोई महाराष्ट्र के गाँवों से। सब अपनी मिट्टी छोड़कर दूर-दराज़ के मोर्चों पर गए और लौटकर फिर कभी घर की चौखट नहीं देख पाए।

इन दीवारों पर खुदे 13,300 नाम महज़ अक्षर नहीं हैं, ये अधूरी कहानियाँ हैं। राम सिंह और मोहम्मद ख़ान, गुरबचन सिंह और थॉमस डिसूज़ा – अलग-अलग धर्म और भाषा के सिपाही, मगर बलिदान में सब बराबर।

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साम्राज्य से आज़ादी तक

1931 में जब ब्रिटिश हुकूमत ने इसे बनवाया, तो यह उनका साम्राज्य दिखाने का तरीका था। लेकिन वक़्त ने अर्थ बदल दिए। आज़ादी के बाद जब 1971 की जंग में “अमर जवान ज्योति” यहाँ जलाई गई, तो इंडिया गेट ने एक नई पहचान पा ली – अब यह सिर्फ़ ब्रिटिश सैनिकों की याद नहीं, बल्कि भारत के हर शहीद का प्रतीक बन गया।

कभी यहाँ किंग जॉर्ज पंचम की मूर्ति थी। आज वही जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा से रोशन है। यह बदलाव हमें बताता है कि इतिहास मिटता नहीं, बस नए मायने ले लेता है।

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ज़िंदगी से भरपूर जगह

आज इंडिया गेट एक जिंदा स्मारक है। यहाँ शाम को बच्चे गुब्बारे उड़ाते हैं, परिवार चाट खाते हैं, कपल्स टहलते हैं और बुज़ुर्ग पुरानी यादें ताज़ा करते हैं।
सोचिए – एक ओर लौ जल रही है उन सैनिकों के नाम पर जो कभी लौटकर नहीं आए, और उसी रोशनी में बच्चे हँसते-खेलते हैं। यही तो भारत की पहचान है – जहाँ शहादत और ज़िंदगी साथ-साथ चलते हैं।

पास में बना राष्ट्रीय युद्ध स्मारक इस तस्वीर को पूरा करता है। इंडिया गेट हमें अतीत से जोड़ता है, और नया स्मारक हमें आज़ाद भारत की बहादुरी की याद दिलाता है।

इंडिया गेट सिर्फ़ पत्थर का एक मेहराब नहीं है। यह दिल्ली की शामों का पहरेदार है, जो हमें हर रोज़ याद दिलाता है कि हँसी और ख़ुशी की इस ज़िंदगी की नींव कहीं न कहीं उन जवानों के लहू से बनी है।

जब आप अगली बार इंडिया गेट जाएँ, तो बस एक पल के लिए इसकी दीवारों पर लिखे नामों को पढ़िए। शायद आपको उनमें अपने गाँव, अपने ख़ानदान, या अपने मुल्क की आत्मा की झलक मिल जाएगी।

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