उर्दू अदब की तारीख में कुछ ऐसी शख्सियतें भी हुई हैं, जिनकी असली पहचान उनके जीते जी नहीं हो पाई. शायद वे “गलत वक्त” पर पैदा हुए, “गलत ढंग” से जिए, और “गलत वक़्त” पर ही दुनिया से चले गए. अख़्तर शीरानी, जिनका असली नाम दाऊद ख़ां था, यकीनन इसी फ़ेहरिस्त में शामिल हैं. एक छोटी सी ज़िंदगी में उन्होंने शायरी और नस्र में ऐसे कमाल दिखाए, जो अक्सर लंबी उम्र पाने वाले अदीबों के लिए भी मुश्किल होते हैं।
एक शहज़ादे की पैदाइश और बागी मिज़ाज की शुरुआत
अख़्तर शीरानी का जन्म 4 मई 1905 को हिंदुस्तान की खूबसूरत रियासत टोंक में हुआ था. यह सिर्फ़ एक बच्चे का जन्म नहीं था, बल्कि उर्दू अदब में एक नई रूमानी धारा की शुरुआत थी. उनके वालिद, हाफ़िज़ महमूद शीरानी, एक महान विद्वान और रिसर्चर थे. अख़्तर अपने वालिद के इकलौते बेटे थे, इसलिए उनकी परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ी गई. धार्मिक शिक्षा के लिए हाफ़िज़ और उस्ताद रखे गए, और उनके वालिद ने खुद उन्हें बाकी शिक्षा दी. साबिर अली शाकिर जैसे माहिर उस्तादों की भी मदद ली गई।
उनके वालिद चाहते थे कि अख़्तर सेहतमंद रहें, इसलिए पहलवान अब्दुल क़य्यूम ख़ान को उनकी जिस्मानी ट्रेनिंग के लिए रखा गया. नन्हा दाऊद ख़ां कुश्ती, पहलवानी और लाठी चलाने में भी माहिर हो गया. हाफ़िज़ महमूद शीरानी चाहते थे कि उनका बेटा भी उनकी तरह आलिम और शोधकर्ता बने, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. अख़्तर का मिज़ाज बचपन से ही आशिकाना था, उनके दिल में एक अजीब सी बेचैनी और जज़्बात का सैलाब था. उन्होंने बहुत कम उम्र से ही शायरी शुरू कर दी थी और चुपके से साबिर अली शाकिर से अपनी शायरी पर मशवरा लेते थे. यह वह दौर था जब उनके अंदर का शायर परवान चढ़ रहा था, एक ऐसा शायर जो हुस्न, इश्क़ और आज़ादी के गीत गाने वाला था।
लाहौर का सफ़र: इश्क़ और जम्हूरियत का नया अध्याय
करीब 16 साल की उम्र में अख़्तर शीरानी की ज़िंदगी में एक बड़ा मोड़ आया. नवाब टोंक के खिलाफ़ एक फसाद हुआ, जिसके बाद कई लोगों को रियासत से बाहर कर दिया गया. इस इल्ज़ाम में हाफ़िज़ महमूद शीरानी भी शामिल थे और उन्हें मजबूरन लाहौर जाना पड़ा. अख़्तर शीरानी भी उनके साथ लाहौर आ गए. इस शहर ने उनकी साहित्यिक और निजी ज़िंदगी पर गहरी छाप छोड़ी।
लाहौर आकर उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और ओरिएंटल कॉलेज से मुंशी फ़ाज़िल और अदीब फ़ाज़िल की परीक्षा भी पास की. साथ ही उन्होंने शायरी में अल्लामा ताजवर नजीब आबादी को अपना उस्ताद मान लिया. पढ़ाई पूरी करते ही वह पत्रकारिता की दुनिया में कदम रख चुके थे. उन्होंने एक के बाद एक कई पत्रिकाएं निकालीं, जिनमें ‘अदबी दुनिया’, ‘शहनाज़’, और ‘इंतिख़ाब’ खास तौर पर उल्लेखनीय हैं. उन्होंने कभी नौकरी नहीं की. उनके सभी खर्चे वालिद उठाते थे.
आंसू निकल रहे हैं तसव्वुर में बन के फूल
शादाब हो रहा है गुलिस्तान-ए-आरज़ू
लाहौर में ही अख़्तर शीरानी पर इश्क़ ने ज़ोरदार हमला किया. उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा इसी इश्क़ की कहानियों से भरा है. सलमा, अज़्रा, रेहाना, और फिरदौसी जैसे नाम उनकी नज़्मों में बार-बार आते हैं. ये नाम सिर्फ़ खयाली नहीं थे, बल्कि उनकी ज़िंदगी में हकीकत थे. इसी दौरान उन्हें शराब की भी लत लग गई, जिसने बाद में उनकी ज़िंदगी तबाह कर दी. इन खबरों से हाफ़िज़ महमूद शीरानी को बहुत दुख हुआ. उन्होंने अख़्तर के खर्चे तो बंद नहीं किए, लेकिन यह हुक्म दिया कि वह कभी उनके सामने न आएं. यह उनके वालिद के लिए एक बड़ा सदमा था कि उनका बेटा उस रास्ते पर चल पड़ा था जिसे वह अपने लिए नहीं चाहते थे।
1946 में वालिद की मौत के बाद, सारी जिम्मेदारियां अख़्तर के सिर पर आ गईं, जिनका उन्हें कोई तजुर्बा नहीं था. यह एक ऐसी आज़माइश थी जिससे वह कभी पूरी तरह से उबर नहीं पाए. उनकी शराब पीने की आदत बहुत ज्यादा बढ़ गई. फिर 1947 में देश के बंटवारे ने उनके लिए और दिक्कतें पैदा कर दीं. वह लाहौर में अपने पुराने और सच्चे दोस्त नय्यर वास्ती के पास चले गए. तब तक शराब की अधिकता ने उनके जिगर और फेफड़ों को तबाह कर दिया था. 9 सितंबर 1948 को इस महान शायर ने ऐसी हालत में दुनिया को अलविदा कहा कि कोई अपना उनके पास नहीं था. यह एक दुखद अंत था, उस शायर का जिसने उर्दू अदब को अपने रूमानी रंग से सराबोर कर दिया था।
अख़्तर शीरानी का साहित्यिक फ़लसफ़ा
अख़्तर शीरानी को अक्सर सिर्फ़ ‘रूमान का शायर’ कहकर उनके योगदान को सीमित कर दिया जाता है. यह उर्दू आलोचना की एक बड़ी नाइंसाफ़ी है. अख़्तर की नज़्मों में सलमा, अज़्रा और रेहाना के नाम बार-बार आते हैं.
अख़्तर शीरानी अदब को किसी विचारधारा का गुलाम नहीं बनाना चाहते थे. उनका मानना था कि शायर का काम हुस्न को ज़ाहिर करना है, उसे किसी खास मकसद के लिए इस्तेमाल करना नहीं. यही वजह थी कि उन्होंने सलमा को ज़िंदगी के हुस्न का रूपक बनाकर इश्क़ के गीत गाए. वह सलमा जो एक जीती-जागती हस्ती भी थी और हुस्न का प्रतीक भी।
लेकिन अख़्तर शीरानी को सिर्फ हुस्न और इश्क़ का शायर कहना उनके साथ जुल्म है. हां, यह सच है कि अख़्तर ने उर्दू शायरी को जिस तरह औरत के किरदार से परिचय कराया, उनसे पहले किसी ने नहीं कराया था. उनकी महबूबा उर्दू शायरी की पारंपरिक सितमगर, हाथ में खंजर लिए ‘महबूबा’ के बजाय, संजीदगी, गरिमा, खूबसूरती और समर्पण की एक जीती-जागती प्रतिमा है, जो उर्दू शायरी में औरत के पारंपरिक किरदार से बिल्कुल अलग है. उन्होंने औरत को महज़ एक जिस्मानी माशूका के बजाय एक खूबसूरत रूहानी वजूद के तौर पर पेश किया।
अख़्तर शीरानी की शख्सियत की कई परतें थीं. उनमें एक देशभक्त भी था. वह मुल्क को आज़ाद देखना चाहते थे और यह आज़ादी उनको भीख में नहीं चाहिए थी. उनकी शायरी में इश्क़ और आज़ादी का खूबसूरत संगम मिलता है. उनके कुछ मशहूर शेर इस जज्बे को बयान करते हैं:
इश्क़-ओ-आज़ादी बहार-ए-ज़ीस्त का सामान है
इश्क़ मेरी जान आज़ादी मिरा ईमान है
यह शेर अख़्तर शीरानी के लिए इश्क़ और आज़ादी दोनों की अहमियत को ज़ाहिर करता है. उनके लिए ये दोनों ही ज़िंदगी की बहार का सामान हैं. जहां इश्क़ उनकी जान है, वहीं आज़ादी उनका ईमान. यह उनके अंदर की उस बगावत और आज़ादी की चाहत को उजागर करता है, जो उन्हें किसी भी बंधन में नहीं बांधना चाहती थी, न इश्क़ के और न ही सियासत के।
इश्क़ पर कर दूं फ़िदा में अपनी सारी ज़िंदगी
लेकिन आज़ादी पे मेरा इश्क़ भी क़ुर्बान है
यह शेर पिछले शेर की तफ़सील है, जिसमें अख़्तर शीरानी आज़ादी को इश्क़ से भी बढ़कर मानते हैं. वह अपनी पूरी ज़िंदगी इश्क़ पर फ़िदा करने को तैयार हैं, लेकिन जब बात आज़ादी की आती है, तो उनका इश्क़ भी उस पर कुर्बान है. यह उनकी देशभक्ति और आज़ादी के प्रति उनके गहरे लगाव को दर्शाता है, जो उन्हें सिर्फ रूमानी ही नहीं, बल्कि एक वतन परस्त शायर भी बनाती है।
सर कटा कर सर-ओ-सामान वतन होना है
नौजवानो हमें क़ुर्बान-ए-वतन होना है
यह शेर अख़्तर शीरानी के अंदर के देशभक्त को ज़ाहिर करता है, जो नौजवानों को वतन पर कुर्बान होने का पैगाम देता है. यहां उनकी शायरी में एक इंक़लाबी जज्बा नज़र आता है, जहां वह देश के लिए सब कुछ न्योछावर करने की बात करते हैं. यह शेर उनके रूमानी शायर की छवि से अलग, उनके एक ऐसे पहलू को दिखाता है, जहां वह सामाजिक और सियासी हकीकतों से भी जुड़े थे।
बच्चों का अदब और नस्र में इंक़लाबी कारनामे
अख़्तर शीरानी ने सिर्फ बड़ों के लिए ही नहीं, बल्कि बच्चों के लिए भी अहम अदबी खिदमात अंजाम दीं. उनका पहला काव्य संग्रह “फूलों के गीत” बच्चों के साहित्य में एक मील का पत्थर है. जहां दूसरे शायरों ने नाम मात्र को बच्चों के लिए शायरी की, जो अक्सर अनुवाद या मशहूर कहानियों पर आधारित थीं, अख़्तर का यह पूरा संग्रह उनका एक बड़ा कारनामा है. उनका दूसरा संग्रह “नग़मा-ए-हरम” में भी औरतों और बच्चों के लिए नज़्में शामिल हैं. यह दिखाता है कि उनकी सोच कितनी विस्तृत थी और वह अदब को सिर्फ एक खास दायरे तक सीमित नहीं रखते थे.
अख़्तर शीरानी ने पंजाबी से माहिया, हिंदी से गीत और अंग्रेजी से सॉनेट को अपनी शायरी में ज़्यादातर इस्तेमाल किया. यह कहना गलत न होगा कि उर्दू में बाकायदा सॉनेट लिखने की शुरुआत अख़्तर शीरानी ने की. यह उनकी इंक़लाबी सोच और अदबी हिम्मत का सबूत है कि उन्होंने उर्दू शायरी को नए सांचों में ढालने की कोशिश की।
अख़्तर’ को ज़िंदगी का भरोसा नहीं रहा
जब से लुटा चुके सर-ओ-सामान-ए-आरज़ू
नस्र में भी अख़्तर शीरानी के कारनामे कम नहीं हैं. उन्होंने कई पत्रिकाएं निकालीं और उनका संपादन किया. साल 1925 में, जब अख़्तर शीरानी की उम्र सिर्फ 20 साल थी, उन्होंने लाहौर हाईकोर्ट के मौलवी ग़ुलाम रसूल की पत्रिका का संपादन किया. अल्लामा ताजवर नजीब आबादी के कहने पर पंडित रतन नाथ सरशार के “फ़साना-ए-आज़ाद” का संक्षेप और सरलीकरण बच्चों के लिए किया. इसी तरह डॉक्टर अब्दुलहक़ के कहने पर सदीद उद्दीन मुहम्मद ओफ़ी की “जवामे-उल-हकायात” व “लवामा-उल-रवायात” को बड़ी मेहनत और शोधपरक लगन के साथ उर्दू का जामा पहनाया. उन्होंने तुर्की के मशहूर नाटककार सामी बे के ड्रामे “कावे” को “ज़ह्हाक” के नाम से उर्दू जामा पहनाया।
उन्होंने “धड़कते दिल” के नाम से अफसानों का एक मजमुआ (संग्रह) प्रकाशित किया जिसमें 12 अफसाने दूसरी ज़बानों के अफसानों का अनुवाद हैं और बाकी मूल हैं. “अख़्तर और सलमा के ख़ुतूत”, जिसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, खूबसूरत नस्र का लाजवाब नमूना है और उनकी निजी ज़िंदगी की गहराइयों को दर्शाता है. “आईना ख़ाने” में उनके पांच अफसानों का संग्रह है जो कथित रूप से एक ही रात में लिखे गए थे. ये अफसाने फिल्मी अदाकाराओं की आपबीतियों की शक्ल में हैं, जिनमें औरत के शोषण की कहानी है. यह उनके सामाजिक सरोकार और समाज में फैली बुराइयों के प्रति उनकी गहरी समझ को ज़ाहिर करता है।
उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ
किस दर्जा ना-उमीद हैं परवरदिगार से
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