देश में जाति की जड़ें बहुत पुरानी हैं. इसका असर आज भी हमारे रोज़मर्रा के सिस्टम में साफ दिखता है. चाहे, बात नौकरी की हो, पढ़ाई की, या फिर राजनीति की, जाति की प्रासंगिकता हर जगह दिखती है. भारत सरकार ने आखिरकार जातिगत जनगणना (Caste Census) कराने का फैसला ले लिया है. यह फैसला सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि देश के सामाजिक ताने-बाने, हक़ और बराबरी से जुड़ा एक अहम मोड़ है. 100 साल बाद ये कदम उठाया जा रहा है, क्योंकि आख़िरी बार पूरी आबादी की जातिगत गिनती 1931 में हुई थी. जबकि पहली बार जातिगत जनगणना 1921 में कराई गई थी.
इतिहास की पृष्ठभूमि: आख़िरी बार कब हुई जातिगत जनगणना?
ब्रिटिश शासन के दौरान 1931 में आख़िरी बार पूरी आबादी की जातिगत जनगणना हुई थी. उसके बाद से भारत सरकार ने केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आंकड़े एकत्रित किए हैं, जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं. हालांकि, मंडल आयोग (1980) के मुताबिक देश की लगभग 52% आबादी OBC वर्ग से है. यह अनुमान आज भी सरकारी योजनाओं और आरक्षण नीति की रीढ़ बना हुआ है, लेकिन इसकी पुष्टि के लिए कोई अद्यतन आंकड़े मौजूद नहीं हैं.

1931 के बाद क्यों नहीं हुई पूरी जाति की गिनती?
ब्रिटिश दौर में 1931 में आख़िरी बार हर जाति की गिनती हुई थी. उसके बाद से सरकार सिर्फ SC (दलित) और ST (आदिवासी) की गिनती करती आई है. OBC यानी पिछड़ी जातियों की आबादी का कोई ठोस आंकड़ा आज तक पता नहीं है, जबकि मंडल आयोग ने इसे 52% बताया था. ऐसे में बिना डेटा के क्या वाकई सही योजनाएं बनाई जा सकती हैं?

अब सवाल उठता है कि इस जनगणना से क्या बदलेगा? और क्यों यह कदम आज के भारत के लिए ज़रूरी हो गया है?
जाति की गिनती से क्या फायदे हो सकते हैं?
- नीतियों में साफ़गोई:
जब तक पता नहीं होगा कि कौन-सी जाति पढ़ाई, रोज़गार या हेल्थ में कहां खड़ी है, तब तक कोई भी योजना सही लोगों तक नहीं पहुंच सकती. - OBC को बराबरी का हक़:
आरक्षण है, लेकिन OBC की असली संख्या किसी को नहीं पता। जब गिनती होगी, तो उनकी हिस्सेदारी भी साफ होगी. - ज़रूरतमंद को मदद:
अगर जाति के साथ-साथ आर्थिक हालत भी रिकॉर्ड हो, तो सिर्फ अमीर-पिछड़े नहीं, वाकई ज़रूरतमंद को फायदा मिल सकता है.
पॉज़िटिव असर क्या हो सकते हैं?
- सही जगह पैसा और स्कीम पहुंचेगा. ज़्यादा वंचित लोग होंगे, वहां ज़्यादा स्कूल, कॉलेज, अस्पताल या ट्रेनिंग सेंटर बन सकते हैं.
- राजनीति में सही हिस्सेदारी बढ़ेगी. पंचायत से लेकर संसद तक, जनसंख्या के मुताबिक सीटों और पोज़िशनों में संतुलन आ सकता है.
- शहर और गांव की असलियत सामने आएगी. कई लोग मानते हैं कि अब जाति का कोई मतलब नहीं बचा, लेकिन आंकड़े कहेंगे कि हक़ीक़त क्या है.
चुनौतियां
- राजनीतिक हित:
जाति की गिनती का इस्तेमाल कुछ पार्टियां वोट बैंक के लिए कर सकती हैं. - बंटवारे का डर:
कुछ लोग कहते हैं कि इससे समाज में और ज़्यादा जातिगत टकराव हो सकता है. - डेटा कलेक्शन:
इतने बड़े देश में सही-सही जाति की जानकारी जुटाना टेक्निकल और एडमिन की बड़ी चुनौती हो सकती है.
जातिगत जनगणना अगर सही नियत और सोच के साथ हो, तो ये सिर्फ एक गिनती नहीं होगी, बल्कि बराबरी की लड़ाई को दिशा देने वाला कदम बन सकता है. जब हर वर्ग की स्थिति सामने आएगी, तब सरकार भी पॉलिसी ठीक से बना पाएगी और समाज में भरोसा बढ़ेगा. जातिगत जनगणना का मकसद किसी को छोटा-बड़ा दिखाना नहीं, बल्कि ये समझना है कि आजादी के इतने साल बाद भी कौन पीछे है, और इसकी वजह क्या है?
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