Saturday

07-06-2025 Vol 19

कैफ़ी आज़मी: वो शायर जो लफ़्ज़ों में बुनता था इंक़लाब

By Muskan Khan

“शायर सिर्फ़ महबूब की आंखों का तर्ज़ुमान नहीं होता, वो ज़माने की आंख का शाहिद भी हो सकता है।”
अगर इस बात को किसी ने अपनी ज़िंदगी और शायरी से साबित किया है, तो वो हैं कैफ़ी आज़मी। वो शायर, जो गुलाब भी लिखता था और अंगार भी।

कैफ़ी आज़मी, यानी सैयद अतहर हुसैन रिज़वी, का जन्म 1919 में उत्तर प्रदेश के ज़िला आज़मगढ़ के एक छोटे से गांव मिजवां में हुआ। एक ज़मींदार और इल्मी ख़ानदान में जन्मे इस लड़के से किसी को क्या अंदाज़ा था कि आगे चलकर ये नाम उर्दू अदब में एक बाग़ी सोच और नर्म जज़्बात का आलमी चेहरा बनेगा?

कैफ़ी आज़मी का तालीमी सफ़र

बचपन से ही अरबी-फ़ारसी की तालीम मिली, लेकिन उनका मन हमेशा रवायतों से लड़ता रहा। लखनऊ के मदरसे में उन्हें आलिम बनने भेजा गया, मगर वहां के सख़्त माहौल ने उनके अंदर के सवाल करने वाले इंसान को जगा दिया। जल्द ही वो प्रगतिशील लेखक संघ और मार्क्सवादी सोच से जुड़ गए। शायरी में रूमानी रंग तो था, लेकिन मज़दूर की थकान, औरत की चुप्पी, और समाज की नाइंसाफ़ी उसके असली किरदार बने।

बंबई बुलाया उन्हें सरदार जाफ़री और सज्जाद ज़हीर ने। वहां आकर उन्होंने फ़िल्मों में लिखा, मगर अपने कलम को कभी बाज़ार का गुलाम नहीं बनने दिया। उन्होंने ‘काग़ज़ के फूल’, ‘हीर रांझा’, ‘हक़ीक़त’, और ‘गर्म हवा’ जैसी फिल्मों को अपने अल्फ़ाज़ से सजाया, मगर उनका अंदाज़ वही रहा — सादा लेकिन असरदार।

कैफ़ी आज़मी के लिखे गीत

“तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो” —
सिर्फ़ ग़ज़ल नहीं, दिल की तहों में उतरने वाला आईना है।

कैफ़ी आज़मी की शायरी

कैफ़ी की शायरी में कुछ ख़ास बातें हमेशा रही हैं —
वो मेहनतकशों की आवाज़ थे,
औरतों के हक़ में बुलंद लहजा थे,
ज़ुल्म के ख़िलाफ़ बेबाक सवाल थे,
और इंसाफ़ की तलाश में मुसलसल सफ़र।

कैफ़ी आज़मी की मशहूर किताबें

उनकी मशहूर किताबें — झंकार, आवारा सजदे, आख़िर-ए-शब, और मेरी आवाज़ सुनो — आज भी अदब की महफ़िलों में नई सोच की लौ जलाती हैं। मगर उनके दिल के सबसे क़रीब था उनका गांव मिजवां। उन्होंने सिर्फ़ शायरी से नहीं, हक़ीक़त में भी समाज को बदला। गांव में लड़कियों के लिए स्कूल और सिलाई केंद्र खुलवाए। उन्होंने कहा था —
“अगर मैं एक लड़की को पढ़ा सकूं, तो मेरी शायरी मुकम्मल हो जाएगी।”
उनकी बेटी शबाना आज़मी और “मिजवां वेलफेयर सोसाइटी” आज उस ख्वाब को जिंदा रखे हुए हैं।

कैफ़ी आज़मी 2002 में दुनिया से रुख़्सत हुए, लेकिन उनकी आवाज़ आज भी गूंजती है —
“मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,
हर फ़िक्र को धुएं में उड़ाता चला गया…”

कैफ़ी आज़मी सिर्फ़ एक शायर नहीं थे।
वो एक सवाल थे, एक मशाल थे, और एक मुसलसल बग़ावत — जो आज भी अल्फ़ाज़ में जल रही है।

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