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22-07-2025 Vol 19

मुहर्रम और करबला: इंसानियत की सबसे बड़ी कुर्बानी की दास्तान

By Muskan Khan

हर साल जब इस्लामी साल की पहली तारीख़ आती है, तो एक ग़म का मौसम शुरू होता है यानि मोहर्रम। यह महीना सिर्फ़ एक तारीख़ नहीं, बल्कि इंसानियत, सब्र, और कुर्बानी की याद है। 10 मोहर्रम को मनाया जाने वाला यौम-ए-आशूरा वह दिन है, जब इंसाफ और सच्चाई के लिए इमाम हुसैन (अ.स) और उनके 72 साथियों ने अपनी जान क़ुर्बान कर दी थी। यह घटना सिर्फ़ एक धार्मिक कहानी नहीं, बल्कि पूरी इंसानियत के लिए सबक है कि ज़ुल्म चाहे कितना भी ताक़तवर हो, आख़िरकार हारता ही है।

करबला की जंग

सन् 680 ईस्वी (61 हिजरी), इराक़ की ज़मीन पर एक मैदान है जिसका नाम है करबला। यह वही जगह है जहां नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) के नवासे इमाम हुसैन को अपने परिवार और साथियों के साथ रोक लिया गया था। वजह थी – उन्होंने ज़ालिम शासक यज़ीद की बैअत (आज्ञापालन) से इनकार कर दिया था।

यज़ीद चाहता था कि सारे मुसलमान उसे इस्लाम का खलीफ़ा मानें, जबकि वह खुले आम इस्लामी उसूलों की तौहीन कर रहा था। शराब, जुए, फुहाश़ी और ज़ुल्म उसके शासन की पहचान थी। ऐसे में इमाम हुसैन ने कहा: “मुझ जैसा, तुझ जैसे की बैअत नहीं कर सकता।”

यज़ीद ने अपनी फौज भेजी और इमाम हुसैन को करबला में घेर लिया गया। 2 मोहर्रम को उनका काफिला करबला पहुंचा, और 7 मोहर्रम को फुरात नदी से पानी की सप्लाई रोक दी गई। अब क़ाफ़िले में मौजूद छोटे-छोटे बच्चे, औरतें, बुज़ुर्ग — सब प्यासे थे। मगर किसी ने भी ज़ुल्म के आगे सर नहीं झुकाया।

एक ईमान है बिसात अपनी न इबादत न कुछ रियाज़त है 4

अली अकबर इब्न हुसैन (अ.स)

इमाम हुसैन के बड़े बेटे थे, जो अपने नाना हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) से शक्ल और सीरत में मिलते थे। जब उन्होंने दुश्मनों पर हमला किया, तो पूरा मैदान कांप गया। लेकिन तीरों और तलवारों से घायल होकर वह शहीद हो गए।

अली असगर (6 महीने का बच्चा)

जब भूख और प्यास से मासूम अली असगर तड़प रहे थे, लेकिन तीरंदाज़ हुरमुला ने एक तीन-मुंह वाला तीर छोड़ा जो अली असगर के गले में लगा। ख़ून का फ़व्वारा निकला और वो मासूम शहीद हो गए। यह करबला की सबसे दर्दनाक घटना मानी जाती है।

हज़रत अब्बास (अलमदार)

इमाम हुसैन के सौतेले भाई। बहादुरी, वफ़ा और अदब की मिसाल थे। जब बच्चों के लिए पानी लाने गए, तो दुश्मनों ने दोनों हाथ काट डाले। फिर भी उन्होंने मश्क़ को दांतों से पकड़ रखा। जब तक दम रहा, उन्होंने पानी को गिरने नहीं दिया।

क़ासिम इब्न हसन

13 साल के थे। जब जंग की इजाज़त मांगी, तो इमाम ने मना किया। उन्होंने अपनी मां का निकाहनामा दिखाया जिसमें इमाम ने उन्हें ‘जन्नत का वादा’ किया था। फिर इमाम ने इजाज़त दी और क़ासिम जंग में उतरे। लड़ते-लड़ते शहीद हुए, और उनकी लाश को घोड़े से कुचला गया।

मुस्लिम इब्न अकील

इमाम के चचेरे भाई। उन्हें पहले ही कूफा भेजा गया था, लेकिन वहां के लोगों ने धोखा दिया। उन्हें गिरफ़्तार कर गवर्नर हाउस की छत से गिरा कर शहीद किया गया। करबला के पहले शहीद यही थे।

एक-एक कर सब शहीद होते गए

72 शहीदों की लिस्ट में हर शख्स की कहानी दिल को झकझोर देने वाली है। हबीब इब्न मज़ाहिर, हुर इब्न यज़ीद, ज़ुहैर इब्न क़ैन, बुरैर इब्न खुज़ैर, और कई नाम ऐसे हैं जिन्होंने इस्लाम की हिफाज़त के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया।

इमाम हुसैन की आख़िरी लड़ाई

जब सभी साथी शहीद हो गए, तब इमाम अकेले मैदान में उतरे। तीन दिन की भूख और प्यास, दर्द और ग़म के बावजूद, वह पूरी ताक़त से लड़े। आखिरकार, शिमर नामक दरिंदे ने उन्हें ज़ख़्मी किया और गर्दन काट दी। उनका सिर दमिश्क यज़ीद के पास भेजा गया। उनके जिस्म पर घोड़ों को दौड़ाया गया, उंगली काटकर अंगूठी निकाली गई। मगर उनका पैग़ाम दुनिया के हर इंसाफ़पसंद दिल में बस गया।

करबला कोई पुरानी घटना नहीं है — यह आज भी जिंदा है। जब भी दुनिया में कहीं ज़ुल्म होता है, तो करबला की मिसाल सामने आती है। ग़ज़ा, कश्मीर, सीरिया या किसी भी जगह पर जब मज़लूमों पर ज़ुल्म होता है, तो हुसैनी लोग खड़े होते हैं।

  • महात्मा गांधी: मैंने हुसैन से सीखा कि मज़लूमियत में किस तरह जीत हासिल की जा सकती है।
  • रवींद्रनाथ टैगोर: कुर्बानियों से भी फ़तह हासिल की जा सकती है — जैसे इमाम हुसैन ने करबला में किया।
  • नेहरू: इमाम हुसैन की कुर्बानी इंसानियत की भलाई की अनमोल मिसाल है।
  • शंकराचार्य: अगर इमाम हुसैन न होते तो इस्लाम का नाम लेने वाला भी न होता।
  • सरोजिनी नायडू: यह मुसलमानों की खुशकिस्मती है कि उनके बीच हुसैन जैसे इंसान हुए।

हिन्दू-मुस्लिम एकता और करबला

आज भारत के हर कोने में चाहे हिंदू हो, मुस्लिम हो, सिख हो या ईसाई — सब इमाम हुसैन की शहादत का ग़म मनाते हैं। कहीं ताज़िए निकलते हैं, कहीं अलम रखे जाते हैं। कहीं मजलिसें होती हैं, कहीं मातम। यह गंगा-जमुनी तहज़ीब की सबसे सुंदर मिसाल है।

इमाम हुसैन ने हमें सिखाया कि इज़्ज़त की मौत, ज़िल्लत की ज़िंदगी से बेहतर है। उन्होंने जिंदा रहकर नहीं, शहीद होकर इस्लाम को जिंदा किया। आज भी करबला की मिट्टी सिर्फ एक जगह नहीं, वह हर दिल में है जो हक़, इंसाफ, और इंसानियत को मानता है।

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