Saturday

07-06-2025 Vol 19

शेख़ इब्राहीम ‘ज़ौक़’: जब बादशाह के सामने ग़ज़ल पढ़ने से किया मना

By Muskan Khan

शेख़ मुहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ का जन्म 1789 में दिल्ली के गली कासिम जान में हुआ। वही गली जहां बाद में मिर्ज़ा ग़ालिब भी बस गए। ज़ौक़ का ख़ानदानी पेशा इल्म या अदब से नहीं जुड़ा था। उनके वालिद मुहम्मद रमज़ान एक नौ-मुस्लिम खत्री थे और पेशे से साधारण दर्ज़ी थे। मगर तक़दीर ने ऐसा करवट ली कि छोटा इब्राहीम हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल के मदरसे जा पहुंचे, जहां अरबी-फ़ारसी के साथ-साथ शायरी का शौक़ भी जाग उठा।

यहीं से उनके अदबी सफ़र की शुरुआत हुई। उस्ताद ‘शौक़’ से तालीम हासिल की, और उन्हें ही ‘ज़ौक़’ का तख़ल्लुस अता हुआ। बाद में वो शाह नसीर के शागिर्द बने। एक बड़ा नाम, मगर तंज़ और हसद से भरा हुआ मिज़ाज। ज़ौक़ ने उस दबाव में भी अपनी राह अलग बनाई।

दिल्ली का सादा-लिबास शायर

ज़ौक़ की शख़्सियत में एक ग़ैरमामूली सादगी थी। दिल्ली की तंग गलियों में पला-बढ़ा यह शायर जब मुग़ल सल्तनत के आख़िरी चिराग़, बहादुर शाह ज़फ़र, का उस्ताद बना, तब भी उसके तेवर नहीं बदले। ज़ौक़ को न दौलत की लालच थी, न शोहरत का ग़ुरूर। उन्हें अगर कुछ अज़ीज़ था तो वो था उनका फ़न और उनकी दिल्ली। इस शेर में देखिए कैसी मोहब्बत है उस शहर से

इन दिनों गरचे दकन में है बहुत क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर

दिल्ली, जो अब नाज़ुक दौर से गुज़र रही थी, उसके लिए ये इश्क़ शायद वफ़ादारी की आख़िरी मिसाल थी।

ज़ौक़ और क़सीदा: तख़्त की ज़बान में फ़न का रंग

ग़ज़ल से इतर, ज़ौक़ को सबसे ज़्यादा शोहरत उनके क़सीदों से मिली। अकबर शाह सानी ने उन्हें “ख़ाक़ानी-ए-हिंद” का ख़िताब दिया — यह वो इज़्ज़त थी जो सिर्फ़ फ़ारसी अदब में बड़े नामों को हासिल थी। ज़ौक़ के क़सीदे सिर्फ़ तारीफ़ के लिए नहीं, बल्कि उस दौर की सियासत, तहज़ीब और ज़बान की मिसाल थे। उनका एक मशहूर क़सीदा “दर बारगाह-ए-सुल्तान अकबर शाह” पढ़ते वक़्त आज भी लफ़्ज़ों की शफ़्फ़ाफ़ियत और नज़ाकत महसूस होती है।

गिरा जो खल्क़ में ऐ ‘ज़ौक़’ अपनी क़द्र हुई
ग़रीब हो के भी इक दौर का असर हूं मैं”

ग़ालिब बनाम ज़ौक़: रक़ाबत नहीं, अदब का जलवा

मीर और सौदा के बाद उर्दू शायरी में जो दिलचस्प रक़ाबत देखने को मिली, वो थी ग़ालिब और ज़ौक़ की। ग़ालिब का लहजा तंज़िया और ताख़लुस से भरपूर था, जबकि ज़ौक़ का अंदाज़ तहज़ीब का नमूना। जब ग़ालिब कहते हैं

आ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता
वगरना शहर में ‘ग़ालिब’ की आबरू क्या है

तो ज़ौक़ इसका जवाब इस अंदाज़ में देते हैं

जिनको दावा-ए-सुख़न है ये उन्हें दिखला दो
देखो इस तरह से कहते हैं सुखनवर सेहरा

ये महज़ दुश्मनी नहीं, बल्कि उस दौर के अदबी मयार की बुलंदी थी। दोनों अपने-अपने अंदाज़ में बेजोड़ थे।

जब ज़ौक़ को बादशाह के सामने ग़ज़ल पढ़ने से मना किया गया

एक बार बहादुर शाह ज़फ़र ने ज़ौक़ से दरबार में ग़ज़ल सुनाने की दरख़्वास्त की। ज़ौक़ ने माज़रत पेश की। वजह पूछी गई तो बोले, “हुज़ूर, ग़ज़ल दिल की बात है और दिल आपके तख़्त के नीचे कहीं गिरवी पड़ा है। मैं तो सिर्फ़ वही कह सकता हूँ जो आप सुनना चाहें।”

इस बात ने ज़फ़र को ग़मज़दा कर दिया, लेकिन ज़ौक़ के फ़न की सच्चाई उस दिन सबके सामने आ गई।

ग़दर का अंधेरा और ज़ौक़ का बिखरता दीवान

1854 में ज़ौक़ का इंतक़ाल हुआ। उनके दीवान का बड़ा हिस्सा या तो खो गया या 1857 के ग़दर में जल गया। ज़ौक़ अक्सर अपने कलाम को तकियों, कपड़ों या मटकों में छिपा देते थे। उनके शागिर्दों ने जो बचाया, वो भी वक़्त की गर्द में दब गया। तक़रीबन 40 साल बाद जाकर उनका संकलन छपा।

ज़ौक़ की शायरी: आम आदमी की ज़बान, ख़ास लहजा

उनके शेरों में ज़िंदगी की सादगी, मुहावरेदारी, और आम बोलचाल की ज़बान दिखाई देती है। कोई जटिल फ़लसफ़ा नहीं, मगर असर दिल तक पहुंचता है।

ऐ ‘ज़ौक़’ तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
आराम से हैं वो जो तकल्लुफ़ नहीं करते

बजा कहे जिसे आलम उसे बजा समझो
ज़बान-ए-ख़ल्क़ को नक़्क़ारा-ए-ख़ुदा समझो

फ़िराक़ और फ़ारूक़ी की राय

फ़िराक़ गोरखपुरी ने ज़ौक़ की शायरी को “पंचायती शायरी” कहा — यानी आम आदमी की आवाज़। मगर साथ ही ये भी माना कि उनकी शायरी में एक अलहदा फ़नकारी और असर है। शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी लिखते हैं:

“ज़ौक़ की शायरी गहराई नहीं, मगर रवानी रखती है। उनके यहां कोई नज़रिया नहीं, मगर एक तहज़ीब ज़रूर है।”

ज़ौक़: जो अब फिर से रोशन हो रहे हैं

कभी जो शायर ग़ालिब के साए में दबा दिया गया था, आज फिर अदबी दुनिया में सराहा जा रहा है। ज़ौक़ का नाम अब फिर से किताबों में, महफ़िलों में, और अदबी चर्चाओं में ज़िक्र-ए-ख़ैर बन चुका है। शायद यही एक सच्चे शायर की असली कामयाबी होती है — जब वक़्त की गर्द हटे, और उसका लफ़्ज़ फिर से चमक उठे।

फूल तो दो दिन बहार-ए-जां-फ़िजा दिखला गए
हसरत उन ग़ुंचों पे है जो बिन खिले मुरझा गए

ज़ौक़ — एक सादा मिज़ाज इंसान, मगर अदब का बड़ा नाम।

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